मैं अकेला यहाँ चलता हूँ,
संभले हुए हैं सब यहाँ |
मैं अकेला खुद ही संभालता हूँ |
और अपना कहते हैं वोह मुझे,
जब यूँ ही किसी बात की तरह |
और मुह अँधेरे में, जो मैं अपने घर से निकलता हूँ |
पर रौशन हैं सड़के दिल्लगी की सड़क पर,
फिर भी मैं मुह-अँधेरे, किसी गलियारे में,
धढ़कनें समेटे हुए चलता हूँ |
मैं अकेला और मेरा पहचाना हुआ,
वोह शाम सा सवेरा |
जब मैं अकेला चलता हूँ |
हर शाम थकेहारे के बाद वोह रात,
और सुबह के इंतज़ार में,
यूँ करवटें बदलता हूँ |
इस गाढे-गाढे जाड़े की,
कोहरे जैसी तन्हाई में |
इन छोटे-छोटे गढ़हों की,
इस झील सी गहराई में |
जब मैं हर बारिश के यूँ बाद,
मोजों तक छपकता हूँ |
तब लगा मुझे की शायद मैं,
अकेला यहाँ चलता हूँ ||
रूठे हुए हैं सब यहाँ,
मैं अकेला ही संभलता हूँ |
इस कोलाहल के चौराहे में,
और मोड़ आया तोह मुढ़ गए,
ना जाने इतना क्यूँ मुढ़ता हूँ ?
एक कशिश में हर पल दिखता हूँ,
जीवन की भागा दौड़ी में |
आतिश की चमक है आँखों में,
हर पल कागज़ पर लिखता हूँ |
ये कविता ख़तम ना होगी यूँ,
जीवन की आपाधापी में |
ये जंजीरें जो मुझे बांधें थी,
हर बंदिश तोड़ के लिखता हूँ |
मैं अकेला यहाँ जो चलता हूँ,
शब्दों के परे हिचकता हूँ |
मैं अकेला यहाँ जो चलता हूँ,
हर पत्थर तोड़ निकलता हूँ |
मैं अकेला यहाँ जो चलता हूँ,
सूरज को लिए यूँ आँखों में,
और दिल को लिए यूँ हाथों में,
साँसों में नहीं हिचकता हूँ,
उस रात यूँ खुद ही संभलने में |
और नहीं चाहिए हाथ मुझे,
जो कांपें हाथ पकड़ने में ||
मैं अकेला ही यहाँ चलता हूँ |
और अग्निपथ ही चुनता हूँ |
क्यूंकि मंजिल वोहि जो मेरी हो |
चाहे कम्पन कदम मैं रखता हूँ,
इन गढ़हों की गहराई में |
चाहे बिखर-बिखर कर चलता हूँ,
इस कोहरे की तन्हाई में |
पर अकेला यहाँ मैं चलता हूँ,
इस सत्य की परछाई में ||
दूर भले ही चलता हूँ,
उन अन्धकार की गलियों से |
आसान भले ही लगता हो,
जहाँ मार्ग नहीं मैं चुनता हूँ |
चाहे शाम को मैं भी ढलता हूँ,
अपनी लम्बी परछाई में |
पर सुबह मैं फिर से उगता हूँ,
उम्मीद की किरण यूँ आई देख |
और फिर अकेला चलता हूँ,
उस लक्ष्य की कठिनाई पे |
मैं अकेला यहाँ चलता हूँ |
मैं अकेला खुद ही संभलता हूँ ||
कवि: विशु मिश्रा
तिथित : मार्च 7, 2007
2:42 am-3:59am
You must be logged in to post a comment.